एक बार ऋषि दुर्वासा बरसाने आए।


एक बार ऋषि दुर्वासा बरसाने आए।
 श्री राधारानी अपनी सखियों संग बाल क्रीड़ा में मग्न थी। छोटे छोटे बर्तनों में झूठ मूठ भोजन बनाकर इष्ट भगवान श्री कृष्ण को भोग लगा रही थी।
.ऋषि को देखकर राधारानी और सखियाँ संस्कार वश बड़े प्रेम से उनका स्वागत किया. उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया और बैठने को कहा. 
.ऋषि दुर्वासा भोली भाली छोटी छोटी कन्यायों के प्रेम से बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने जो आसन बिछाया था उसमें बैठ गए।
.जिन ऋषि की सेवा में त्रुटि के भय से त्रिलोकी काँपती है, वही ऋषि दुर्वासा की सेवा राधारानी एवम सखियाँ भोलेपन से सहजता से कर रही हैं। ऋषि केवल उन्हें देखकर मुस्कुरा रहे।
.सखियाँ कहती है –“महाराज ! आपको पता है हमारी प्यारी राधा न बहुत अच्छे लड्डू बनाती है। हमने भोग अर्पण किया है। अभी  आपको प्रसादी देती हैं।” यह कहकर सखियाँ लड्डू प्रसाद ले आती हैं।
.लड्डू प्रसाद तो है, पर है ब्रजरज का बना, खेल खेल में बनाया गया। ऋषि दुर्वासा उनके भोलेपन से अभिभूत हो जाते हैं।
.हँसकर कहते हैं- “लाली.! प्रसाद पा लूँ ? क्या ये तुमने बनाया है.?”
.सारी सखियाँ कहती हैं- “हाँ हाँ ऋषिवर ! ये राधा ने बनाया है। आज तक ऐसा लड्डू आपने नही खाया होगा।” मुंह में डालते ही परम चकित, शब्द रहित हो जाते हैं।
.एक तो ब्रजरज का स्वाद, दूजा श्री राधा जी के हाथ का स्पर्श लड्डू। “अमृत को फीका करे, ऐसा स्वाद लड्डू का”
.ऋषि की आंखों में आंसू आ जाते हैं। अत्यंत प्रसन्न हो वो राधारानी को पास बुलाते हैं। और बड़े प्रेम से उनके सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं- “बेटी आज से तुम ‘अमृतहस्ता’ हुई।
.दुर्वासा ऋषि बोले –  राधा रानी आप जो बनायोगी वो अमृत के भी अधिक स्वादिष्ट हो जायेगा ।
.जो भी उस दिव्य प्रसाद को पायेगा उसके यश, आयु में वृद्धि होगी उस पर कोई विपत्ति नहीं आएगी, उसकी कीर्ति त्रिलोकी में होगी ।।
.ये बात व्रज में फ़ैल गयी आग की तरह की ऋषि दुर्वासा ने राधा जी को आशीर्वाद दिया ।
.जब मैया यशोदा को जब ये पता चला तो वो तुरंत मैया कीर्तिदा के पास गयी और विनती की आप राधा रानी को रोज हमारे घर नन्द भवन में भोजन बनाने के लिए भेज दिया करे .
.वे दुर्वासा ऋषि के आशीर्वाद से अमृत हस्ता हो गयी है और कंस मेरे पुत्र कृष्ण के अनिष्ठ के लिए हर रोज अनेक असुर भेजता है.
.हमारा मन बहुत चिंतित होता है आपकी बेटी के हाथो से बना हुआ प्रसाद पायेगा तो उनका अनिष्ठ नहीं हो उसकी बल, बुद्धि, आयु में वृद्धि होगी.
.फिर कीर्तिजा मैय्या ने श्री राधा रानी जी से कहा – आप यसोदा मैया की इच्छा पूर्ति के लिए प्रति दिन नन्द गाँव जाकर भोजन बनाया करो.
.उनकी आज्ञा पाकर श्री राधा रानी रोज  कृष्ण के भोजन प्रसादी बनाने के लिए नन्द गाँव जाने लगी.।

🏵🏵🏵🏵जय जय श्री राधेकृष्ण जी।🏵🏵🏵🏵

एक निर्धन जुलाहा


एक गांव में एक निर्धन जुलाहा दम्पत्ति रहता था। जुलाहे के नाम था सुन्दर और उसकी पत्नी का नाम था लीला। 
दोनों पति-पत्नी अत्यंत परिश्रमी थे। सारा दिन परिश्रम करते सुन्दर-सुन्दर कपड़े बनाते, किन्तु उनको उनके बनाए वस्त्रों की अधिक कीमत नहीं मिल पाती थी। 
दोनों ही अत्यन्त संतोषी स्वाभाव के थे जो मिलता उसी से संतुष्ट हो कर एक टूटी-फूटी झोपडी में रहकर अपना जीवन-निर्वाह कर लेते थे। 
वह दोनों भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे, दिन भर के परिश्रम के बाद जो भी समय मिलता उसे  दोनों भगवान के भजन-कीर्तन में व्यतीत करते।
सुन्दर बाबा के पास एक तानपुरा और एक खड़ताल थी, जब दोनों मिलकर भजन गाते तो सुन्दर तानपुरा बजाता और लीला खड़ताल, फिर तो दोनों भगवान के भजन के ऐसा खो जाते की उनको अपनी भूख-प्यास की चिंता भी नहीं रहती थे। 
यूं तो दोनों संतोषी स्वाभाव के थे, अपनी दीन-हीन अवस्था के लिए उन्होंने कभी भगवान् को भी कोई उल्हाना नही दिया और अपने इसी जीवन में प्रसन्न थे किन्तु ...
एक दुःख उनको सदा कचोटता रहता था, उनके कोई संतान नहीं थी। इसको लेकर वह सदा चिंतित रहा करते थे, किन्तु रहते थे फिर भी सदा भगवान में मग्न, इसको भी उन्होंने भगवान की लीला समझ कर स्वीकार कर लिया और निष्काम रूप से श्री कृष्ण के प्रेम-भक्ति में डूबे रहते। 
जब उनकी आयु अधिक होने लगी तो एक दिन लीला ने सुन्दर से कहा कि हमारी कोई संतान नहीं  है, कहते है की संतान के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती, अब हमारी आयु भी अधिक को चली है, ना जाने कब बुलावा आ जाए, मरने की बाद कौन हमारी चिता को अग्नि देगा और कौन हमारे लिए तर्पण आदि का कार्य करेगा, कैसे हमारी मुक्ति होगी। 
सुन्दर बोला तू क्यों चिंता करती है, ठाकुर जी है ना वही सब देखेंगे। सुन्दर ने यह बात कह तो दी किन्तु वह भी चिंता में डूब गया, 
तभी उसके मन में एक विचार आया वह नगर में गया और श्री कृष्ण के बाल गोपाल रूप की एक प्रतिमा ले आया। घर आ कर बोला अब तुझे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है मैं यह बाल गोपाल लेकर आया हूँ,
हमारे कोई संतान नहीं तो वह भी इन्ही की तो लीला है, हम इनको ही अपने पुत्र के समान प्रेम करेंगे, यही हमारे पुत्र का दायित्व पूर्ण करेंगे यही हमारी मुक्ति करेंगे। 
सुन्दर की बात सुन कर लीला अत्यंत प्रसन्न हुई, उसने बाल गोपाल को लेकर अपने हृदय से लगा लिया और बोली आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, आज से यही हमारा लल्ला है। 
दोनों पति-पत्नी ने घर में एक कोना साफ़ करके स्थान बनाया और एक चौकी पर बाल गोपाल को विराजित कर दिया। 
तब से जुलाहा दंपत्ति का नियम हो गया वह प्रतिदिन बाल गोपाल को स्नान कराते उनको धुले वस्त्र पहनाते अपनी संतान की तरह उनको लाड-लडाते, उन्ही के सामने बैठ कर भजन कीर्तन करते और वहीं सो जाते। .
जुलाहा अपने हाथ से बाल गोपाल के लिए सुन्दर वस्त्र बनाता और उनको पहनता इसमें उसको बड़ा आनदं आता। धीरे-धीरे दोनों बाल गोपाल को अपनी संतान के समान ही प्रेम करने लगे। 
लीला का नियम था की वह प्रति दिन अपने हाथ से अपने लल्ला को भोजन कराती तब स्वयं भोजन करती, लल्ला को भोजन कराते समय उसको ऐसा ही प्रतीत होता मानो अपने पुत्र को ही भोजन करा रही हो। 
उन दोनों के निश्चल प्रेम को देख कर करुणा निधान भगवान् अत्यन्त्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अदृश्य रूप में आकर स्वयं भोजन खाना आरम्भ कर दिया,
लीला जब प्रेम पूर्वक बाल गोपाल को भोजन कराती तो भगवान् को प्रतीत होता मानो वह अपनी माँ के हाथो से भोजन कर रहें हैं, उनको लीला के हाथ से प्रेम पूर्वक मिलने वाले हर कौर में माँ का प्रेम प्राप्त होता था, 
लीलाधारी भगवान श्री कृष्ण स्वयं माँ की उस प्रेम लीला के वशीभूत हो गए। किन्तु लीला कभी नहीं जान पाई कि स्वयं बाल-गोपाल उसके हाथ से भोजन करते हैं। 
एक दिन कार्य बहुत अधिक होने के कारण लीला बाल गोपाल को भोजन कराना भूल गई। 
गर्मी का समय था भरी दोपहरी में दोनों पति-पत्नी कार्य करते-करते थक गए और बिना भोजन किए ही सो गए, उनको सोए हुए कुछ ही देर हुई थी कि उनको एक आवाज सुनाई दी.. माँ-बाबा मुझको भूख लगी है
दोनों हड़बड़ा कर उठ गए, चारो और देखा आवाज कहाँ से आई है, किन्तु कुछ दिखाई नहीं दिया। 
तभी लीला को स्मरण हुआ की उसने अपने लल्ला को भोजन नहीं कराया, वह दौड़ कर लल्ला के पास पहुंची तो देखा की बाल गोपाल का मुख कुम्हलाया हुआ है, 
इतना देखते ही दोनों पति-पत्नी वहीं उनके चरणो में गिर पड़े, दोनों की आँखों से आसुओं की धार बह निकली, 
लीला तुरंत भोजन लेकर आई और  ना जाने कैसा प्रेम उमड़ा की लल्ला को उठा कर अपनी गोद में बैठा लिया और भोजन कराने लगी, दोनों पति-पत्नी रोते जाते और लल्ला को भोजन कराते जाते, साथ ही बार-बार उनसे अपने अपराध के लिए क्षमा मांगे जाते, .
ऐसा प्रगाढ़ प्रेम देख कर भगवान अत्यंत द्रवित हुए और अन्तर्यामी भगवान श्रीहरि साक्षात् रूप में प्रकट हो गए। 
भगवान् ने अपने हाथों से अपने रोते हुए माता-पिता की आँखों से आंसू पोंछे और बोले "प्रिय भक्त में तुम्हारी भक्ति और प्रेम से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वर माँग लो मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा पूर्ण करूँगा” .
इतना सुनते ही दोनों भगवान के चरणो में गिर पड़े और बोले "दया निधान आप हमसे प्रसन्न हैं और स्वयं हमारे सम्मुख उपस्थित है, हमारा जीवन धन्य हो गया, इससे अधिक और क्या चाहिए, 
इससे अधिक किसी भी वस्तु का भला क्या महत्त्व हो सकता है, आपकी कृपा हम पर बनी रहे बस इतनी कृपा करें" 
श्रीहरि बोले “यदि तुम चाहो तो में तुम्हारे जीवन में संतान के आभाव को समाप्त कर के तुम्हे एक सुन्दर संतान प्रदान करूँगा"
यह सुनते ही सुन्दर और लीला एकदम व्याकुल होकर बोले "नही भगवन् हमको संतान नहीं चाहिये" 
उनका उत्तर सुनकर भगवान ने पूंछा "किन्तु क्यों ! अपने जीवन में संतान की कमी को पूर्ण करने के लिए ही तो तुम मुझ को अपने घर लेकर आये थे "
यह सुनकर वह दोनों बोले प्रभु हमको भय है कि यदि हमको संतान प्राप्त हो गई तो हमारा मोह उस संतान के प्रति बढ जाएगा और तब हम आपकी सेवा नहीं कर पाएंगे"
उनका प्रेम और भक्ति से भरा उत्तर सुनकर करुणा निधान भगवान् करुणा से भर उठे, स्वयं भगवान् की आँखों से आँसू टपक पड़े वह बोले, 
"हे मैया, बाबा मैं यहाँ आया था आपके ऋण को उतारने के लिए किन्तु आपने तो मुझको सदा-सदा के लिए अपना ऋणी बना लिया, 
मैंआपके प्रेम का यह ऋण कभी नहीं उतार पाउँगा, मैं सदा-सदा तुम दोनों का ऋणी रहूँगा, मैं तुम्हारे प्रेम से अत्यंत प्रसन्न हूँ तुमने अपने निर्मल प्रेम से मुझको भी अपने बंधन में बांध लिया है. 
मैं तुमको वचन देता हूँ कि आज से मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में तुम्हारे समस्त कार्य पूर्ण  करूँगा तुमको कभी संतान का आभाव नहीं होने दूंगा" ऐसा कह कर भक्तवत्सल भगवान् बाल गोपाल की प्रतिमा में विलीन हो गए।
उस दिन से सुन्दर और लीला का जीवन बिल्कुल ही बदल गया उन्होंने सारा काम-धंधा छोड़ दिया और सारा दिन बाल गोपाल के भजन-कीर्तन और उनकी सेवा में व्यतीत करने लगे। 
उनको ना भूख-सताती थी ना प्यास लगती थी, सभी प्रकार की इच्छाओं का उन्होंने पूर्ण रूप से त्याग कर दिया, 
सुन्दर कभी कोई कार्य करता तो केवल अपने बाल गोपाल के लिए सुन्दर-सुन्दर वस्त्र बनाने का। उनके सामने जब भी कोई परेशानी आती बाल गोपाल तुरंत ही एक बालक के रूप में उपस्तिथ हो जाते और उनके समस्त कार्य पूर्ण करते । 
वह दंपत्ति और बालक गांव भर में चर्चा का विषय बन गए, किन्तु गाँव में कोई भी यह नहीं जान पाया की वह बालक कौन है, कहाँ से आता है, और कहाँ चला जाता है। 
धीरे-धीरे समय बीतने लगा, जुलाह दंपत्ति बूढ़े हो गए, किन्तु भगवान की कृपा उन पर बनी रही, अब दोनों की आयु पूर्ण होने का समय आ चला था भगवत प्रेरणा से उनको यह ज्ञात हो गया की अब उनका समय पूरा होने वाला है, 
एक दिन दोनों ने भगवान को पुकारा ठाकुर जी तुरंत प्रकट हो गए और उनसे उनकी इच्छा जाननी चाही, दोनों भक्त दम्पत्ति भगवान के चरणो में प्रणाम करके बोले ....
"है नाथ हमने अपने पूरे जीवन में आपसे कभी कुछ नहीं माँगा, अब जीवन का अंतिम अमय आ गया है, इसलिए आपसे कुछ मांगना चाहते हैं"
भगवान बोले "निःसंकोच अपनी कोई भी इच्छा कहो मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूँगा"
तब बाल गोपाल के अगाध प्रेम में डूबे उस वृद्ध दम्पति बोले "हे नाथ हमने अपने पुत्र के रूप में आपको देखा, और आपकी सेवा की आपने भी पुत्र के समान ही हमारी सेवा करी अब वह समय आ गया है जिसके लिए कोई भी माता-पिता पुत्र की कामना करते हैं, 
है दीनबंधु हमारी इच्छा है की हम दोनों पति-पत्नी के प्राण एक साथ निकले और है दया निधान जिस प्रकार एक पुत्र अपने माता-पिता की अंतिम क्रिया करता है, और उनको मुक्ति प्रदान करता है, उसी प्रकार है परमेश्वर हमारी अंतिम क्रिया आप अपने हाथो से करें और हमको मुक्ति प्रदान करें"
श्रीहरि ने दोनों को उनकी इच्छा पूर्ण करने का वचन दिया और बाल गोपाल के विग्रह में विलीन हो गए।
अंत में वह दिन आ पहुंचा जब प्रत्येक जीव को यह शरीर छोड़ना पड़ता है, दोनों वृद्ध दम्पति बीमार पड़ गए, उन दोनों की भक्ति की चर्चा गांव भर में थी इसलिए गांव के लोग उनका हाल जानने उनकी झोपडी पर पहुंचे, 
किन्तु उन दोनों का ध्यान तो श्रीहरि में रम चुका था उनको नही पता कि कोई आया भी है, नियत समय पर एक चमत्कार हुआ जुलाहे की झोपड़ी एक तीव्र और आलौकिक प्रकाश से भर उठी।
वहां उपस्थित समस्त लोगो की आँखे बंद हो गई, किसी को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था, कुछ लोग तो झोपडी से बाहर आ गए कुछ वही धरती पर बैठ गए।
श्री हरी आपने दिव्य चतर्भुज रूप में प्रकट हुए, उनकी अप्रितम शोभा समस्त सृष्टि को आलौकित करने वाली थी, वातावरण में एक दिव्य सुगंध भर गई, 
अपनी मंद-मंद मुस्कान से अपने उन भक्त माता-पिता की और देखते रहे, उनका यह दिव्य रूप देख कर दोनों वृद्ध अत्यंत आनंदित हुए, 
अपने दिव्य दर्शनों से दोनों को तृप्त करने के बाद करुणा निधान, लीलाधारी, समस्त सृष्टि के पालन हार श्री हरी, वही उन दोनों के निकट धरती पर ही उनके सिरहाने बैठ गए, 
भगवान् ने उन दोनों भक्तों का सर अपनी गोद में रखा, उनके शीश पर प्रेम पूर्वक अपना हाथ रखा, तत्पश्चात अपने हाथो से उनके नेत्र बंद कर दिए, 
तत्काल ही दोनों के प्राण निकल कर श्री हरी में विलीन हो गए, पंचभूतों से बना शरीर पंच भूतो में विलीन हो गया।
कुछ समय बाद जब वह दिव्य प्रकाश का लोप हुआ तो सभी उपस्थित ग्रामीणो ने देखा की वहां ना तो सुन्दर था, ना ही लीला थी और ना ही बाल गोपाल थे। 
शेष थे तो मात्र कुछ पुष्प जो धरती पर पड़े थे और एक दिव्य सुगंध जो वातावरण में चहुं और फैली थी। विस्मित ग्रामीणो ने श्रद्धा से उस धरती को नमन किया, 
उन पुष्पों को उठा कर शीश से लगाया तथा सुंदर, लीला की भक्ति और गोविन्द के नाम का गुणगान करते हुए चल दिए उन पुष्पों के श्री गंगा जी में विसर्जित करने के लिए।
मित्रो...भक्त वह है जो एक क्षण के लिए भी विभक्त नहीं होता, अर्थात जिसका चित्त ईश्वर में अखंड बना रहे वह भक्त कहलाता है। सरल शब्दों में भक्ति के अंतिम चरण का अनुभव करने वाले को भक्त कहते हैं ।

  जय जय श्री राधे