GOVARDHAN PARVAT STORY

राधे राधे

एक बड़े बूढ़े से बाबा थे मथुरा में। चिकित्सक। 7 वर्ष के थे तभी से अपने दादा जी के साथ गिरिराज जी की परिक्रमा करते । ऐसे करते 72 साल के हो गये । एक बार अपने नियम से वो रात में परिक्रमा जाने लगे। उस दिन मौसम थोड़ा खराब था ।सबने मना किया पर वो माने नही। सोचा कल चिकित्सालय बन्द करना नही पड़ेगा। रात में ही परिक्रमा कर लूँगा। तो निकल गये परिक्रमा के लिये । जिस मार्ग से जाते थे वो कच्चा था। पर उन्होंने तो मन बना ही लिया था कि आज तो जाऊंगा ही । मार्ग में वर्षा आरंभ हो गयी। अब एक जगह गड्ढे में फंस गये बाबा। जितना पैर आगे निकालते उतना और धँस जाते उस कीचड़ में। 

वे बाबा जी अक्सर एक पंक्ति को गाकर भगवान को खूब याद करते थे। जान चुके थे कि दलदल में फंस गया हूँ, बचूँगा तो नही अब। रात बहुत है कोई सहायता को भी नही आयेगा। अब उन्होंने जोर जोर ऊँची आवाज़ से भगवान को याद करना आरंभ किया, कहते,

"श्री राधाकृष्ण के गह चरण,
श्री गिरिवरधरण की ले शरण"

बीच बीच मे आर्तनाद भी करते, 
हे गोपाल, बंशीलाल अपने चरणों मे स्थान देना

इतने में एक नन्हे बालक की आवाज़ बाबा के कान में पड़ी। को है? बाबा बोले- मैं परिकम्मा जात्री। अरे लाला, कल कोई पूछे तो बताना डॉक्टर साहब दलदल में लीन है गये। कृपा करियो मो पै, घर वाले परेसान होंगे। बालक बोला- अभी तो डाक्टरी करनी तोय, ले पकड़ लकुटिया और बाहर आ बाबा। बाबा ने सोचा- छोटा बालक कहाँ मेरा बोझ सह पायेगा। तो बोले- नाय नाय लाला, तू मेरो संदेशो दे दियो मथुरा। मेरे बोझ से तू भी दलदल में फंस गयो, तो बड़ो पाप लगेगो मोकू। बालक बोला- मेरी चिंता छोड़, लकुटिया पकड़ बाबा। मैं निकाल लूँगो तोय। अब बाबा क्या करते, थाम ली बालक की लाठी, और उस दलदल से ऐसे बाहर निकल आये जैसे कोई तिनका। बाहर आके देखते है एक सुंदर सा बालक धीरे धीरे मुस्कुरा रहा है। ऐसे भारी अंधेरे और बरसात में बालक को देख बाबा बोले। का रे, तोय डर वर है, इत्ती रात कू बाहर का कर रहयो है। माना तेरी मैय्या ने लाड़ में तोय बंसी देय दी, माथे मोरपंख लगा दई। पर यासे तू कृष्ण थोड़े बन जायेगो। चल घर अपने मैं छोड़ि आऊं। बालक हँसकर बोला। मेरी चिंता छोड़। तोकू जा दगरे (मार्ग) ते पार कराय दूँ। फिर जाऊंगो घर। बाबा बोले- अरे तू तो बड़ो हठी बालक है। का काम  करै है? बालक बोला- कछु नाय। बस या गिरिराज पे डोलू। गैय्या चराऊँ और कभी कभी तेरे से दलदल में फंसे लोगों की मदद करूँ बाबा। बाबा बोले- तेरी मैय्या बड़ी भागबान है, तेरे जैसो संस्कारी बालक जो पाया है। बड़ी कृपा है तेरे परिवार में गिर्राज की। लाला खिलखिला कर हंस दिया और बोला- अरे बाबरे तोपे कृपा नाय का? बाबा कहते- कहां मेरी ऐसी किस्मत। तभी बालक बोल उठा- अच्छा बाबा, अब ठीक मारग आय गयो है। अपना जप कर, परिकम्मा लगा, मैं चला। देर है गयी, आज मैय्या मारेगी मोहे। बालक कह कर थोड़ा पीछे रह गया। बाबा आगे चलते हुए आशीष देते जाते है। सुन, अपनी मैय्या को राम राम कहियो। तोहे आशीष। और जैसे ही पीछे मुड़कर देखते है, मार्ग सुनसान, अब उनका विवेक जाग्रत हुआ, अरे स्वयं प्रभु आये थे। अब बाबा कभी इधर ढूंढते कभी उधर, रज में खूब लोट लगाते, अपनी मूर्खता पर रोते और भाग्य पर हँसते। उसके बाद उन्होंने प्रण लिया कि जब तक वो रहेंगे, तब तक भगवान की शरण मे रह गिरिराज जी की परिक्रमा लगाते रहेंगे

श्री राधे कृष्णा

पावन प्रेम अगर महकेगा

पावन प्रेम अगर महकेगा,
तो मन चंदन हो जाएगा !
नारी "राधा " हो जाएगी
नर "मनमोहन" हो जाएगा !        
"तन " को चाहे जितना रंग लो
कोई फर्क नही होगा....
"मन " को जिस दिन रंग लोगे
मन वृंदावन हो जाएगा !! ⚡

   🍃🌹 जय श्री राधाकृष्ण 🌹🍃


ठाकुर जी का प्रसादम रोटी

❤ ठाकुर जी का प्रसादम रोटी ❤


एक बार आवश्य पड़ना मेरा निवेदन है

मैं वो खुश नसीब "रोटी" हूँ, जिसे मन्दिर में ठाकुर जी के कर्मठ सेवादार बड़ी श्रद्धा और प्रेम से बेलते और पकाते हैं.।

फिर एक सुंदर सी थाली में मुझे रख कर, एक रंग बिरंगे रेशमी रूमाल से ढक कर, बड़े मान सम्मान के साथ मुझे ठाकुर जी के दरबार के अन्दर लाया जाता है.।

फिर मुझे ठाकुर जी के बगल में रखी एक आलीशान मेज पर रखा जाता है, और मै लगभग 15 मिनट तक ठाकुर जी के समक्ष रहती हूँ .। और ये 15 मिनट मेरी ज़िन्दगी के सब से खुशनुमा पल होते हैं, जब मैं ठाकुर जी के इतने निकट से दर्शन करती हूँ। और शब्द सुन कर मुझमें और भी मिठास आ जाती है।

इस दौरान मैं ठाकुर जी से विनती करती हूँ, कि हे ठाकुर जी, मुझे ग्रहण कीजिये, और ठाकुर जी जैसे ही मुझे अपने मुख से स्पर्श करते हैं, तब मैं सिर्फ़ रोटी नहीं रहती, बल्कि रोटी प्रसाद बन जाती हूँ।

और जब मुझे वापिस रसोई घर तक लाया जाता है, तो रास्ते में सारी संगत हाथ जोड़ कर झुक कर प्रणाम करती है, क्योंकि मैं तब तक अमृत युक्त हो चुकी होती हूँ।

और जब मैं संगत की थाली तक पहुँचती हूँ, तो ऐसी औषधि बन जाती हूँ, जिससे हर असाध्य रोग भी शांत हो जाता है।

नाम मेरा हो जाता है, परंतु चिकित्सा ठाकुर   जी ही करते हैं, मैं केवल आटे को पानी में गूंध कर नहीं बनाई जाती, बल्कि समर्पण के आटे को सिमरन के पानी में गूंध कर बनाई जाती हूँ !   

राधे राधे राधे राधे जी!