राधे राधे
आज की
“ब्रज रस धारा”
दिनांक
21/12/2018
जन्म -श्रीलोकनाथजी का प्रादुर्भाव विक्रम सम्वत
1540 में पूर्व बंगाल के यशोहर जनपदान्तर बालखेड़ा ग्राम में हुआ था. इनके पिता का नाम श्रीपद्मनाभ चक्रवर्ती तथा माता का नाम सीतादेवी था.बचपन से ही इनकी प्रतिभा अत्यन्त प्रखर थी.
श्रीलोकनाथ गोस्वामीजीश्रीकृष्ण चैतन्य माह्प्रभु के एक पार्षद थे.
इनकी श्रीराधाकृष्ण के प्रति अहर्निश एक जैसी प्रीति थी.इन्होंने अपने पिताजी से ही व्याकरण,
न्याय,
काव्य,
कोश एवं अलंकारादि का अध्ययन किया.फिर ये वेदान्त एवं भागवतादि ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए शान्तिपुर,
श्रीअद्वैताचार्य की पाठशाला के छात्र बने.
श्री अद्वैताचार्यजी की पाठशालाश्रीमद्भागवत का पाठ,कीर्तन एवं पारायण इनको प्राण के समान प्रिय था.उन दिनों श्री गौरांग महाप्रभूजी भी वहीं अध्ययन करते थे.प्रथम साक्षात्कार में ही इनमें एवं श्रीमहाप्रभुजी में अपार स्नेह हो गया.
उस पर भी एक दिन श्रीअद्वैताचार्यजी ने श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी का हाथ पकड़कर श्रीमहाप्रभुजी को सोंपते हुए कहा,
‘ इसे अपना करके मानना.तब से श्रीमहाप्रभुजी का इनके प्रति स्नेह और भी बढ़ गया.हमेशा इन्हें अपने साथ रखते.अध्ययन पूर्ण होने पर जब दोनों अपने-अपने घर गये तो कुछ समय के लिए दोनों में वियोग रहा परन्तु कुछ ही दिनों के बाद जब श्रीमहाप्रभुजी अध्यापकी छोड़कर संकीर्तन प्रचार में लगे,
उन्हीं दिनों माता-पिता का देहान्त हो जाने से श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी भी संसार से संन्यास लेकर एवं श्रीमहाप्रभुजी के प्रेम से आकृष्ट होकर श्रीनवद्वीप को चल पड़े.भगवदिच्छा से श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी का श्रीमहाप्रभुजी से द्वितीय मिलन श्रीअद्वैताचार्य के यहॉ ही हुआ.
श्रीमहाप्रभुजी का दर्शन करते ही ये प्रेमावेष में करुण क्रन्दन करते हुए श्रीमहाप्रभुजी के चरणों में गिर पड़े.श्रीमहाप्रभुजी ने इन्हें उठाकर हृदय से लगाया और बहुत प्रकार से धैर्य बधाकर परामर्श दिया कि
,’तुम मेरी बात मानकर श्रीवृन्दावन चले जाओ.वहॉ तुम्हें कुछ समय पर्यन्त परम भागवत श्रीरूप-सनातन,
गोपाल भट्ट आदि वैष्णवोंका सत्संग प्राप्त होगा.
अब मैं भी शीघ्र संन्यास लेकर मुक्त हृदय से प्राणिमात्र को भगवन्नाम का वितरण करूंगा.श्री लोकनाथ जी का वृंदावन जानाप्रभु के समझाने से आस्वस्थ होकर श्रीपण्डित गदाधर के प्रिय शिष्य श्रीभूगर्भ गोस्वामीजी को साथ लेकर वृन्दावन को चल पड़े.
श्रीवन्दावन पहुच कर इनके मन को परम विश्राम मिला.
प्रेम विह्वल चित्त से श्रीराधामाधवकी ललित लीलाओं का चिन्तन एवं सतत नाम स्मरण इनकी सहज साधना थी.
परन्तु यह सब होने पर भी इनका मन श्रीमहाप्रभुजी के चरणों के लिए तड़पता था.जब श्रीमहाप्रभुजी दक्षिण भारत की यात्रा की और श्रीरंगम में श्रीवेंकट भटटजी के यहा चातुर्मास करने के लिए रुके थे,
उस समय एक ब्राह्मण से श्रीमहाप्रभुजी का पता पाकर ये उनके दर्शनार्थ श्रीरंगम को चल दिये.
वहा पहुचने पर पता चला कि वे तो वहा से प्रस्थान कर चुकेहैं.
वहॉ इनका मिलन श्रीगोपाल भट्टजी से हुआ.
पुन: जब इन्हें पता चला कि श्रीमहाप्रभुजी श्री वृन्दावन की तरफ गये हैं,
ये तत्काल वहॉ से चले और अविश्रान्तभावसे चलते-चलते श्रीवृन्दावन पहुचे.
परन्तु यहॉ आने पर पता चला कि श्रीमहाप्रभुजी यहॉ के तीर्थों का दर्शन कर प्रयाग की ओर प्रस्थान कर गये.
इतना करने पर भी इन्हें जब श्रीमहाप्रभुजी का दर्शन नहीं हुआ तो इन्हें अपार मानसिक कष्ट हुआ और इन्होंने संकल्प किया कि या तो प्रयाग जाकर श्रीमहाप्रभुजी का दर्शन करूगा या त्रिवेणी में अपने शरीर का विसर्जन कर दूंगा.उसी दिन,
रात्रि में श्रीमहाप्रभुजी ने स्वप्न में आदेशदिया कि,’लोकनाथ!
मैं तो सदा तुम्हारे साथ हूँ.
तुम अब श्रीवृन्दावन की सीमा से बाहर नहीं जाना.
मैं प्रयाग सेसीधा नीलाचल जाऊॅगा और वहॉ से अपना समाचार देता रहॅूगा.श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी ने श्रीमहाप्रभुजी का स्वप्नादेश शिरोधार्य किया और श्रीवृन्दावन वास करने लगे.
आगे चलकर श्रीमहाप्रभुजी की प्रेरणा से श्रीरूप-सनातन आदि वैष्णववृन्द श्रीवृन्दावन आये.
उनके साहचर्यसे इनकी साधना को बहुत बल मिला.श्री लोकनाथ जी द्वारा श्रीराधाविनोद जी का प्राकट्यएक बार एकान्तवास की इच्छा से ये व्रज के परम पावन स्थान छाता तहसील के उमराव ग्राम में किशोरी कुण्ड पर स्थित तमाल वृक्ष के नीचे रहने लगें.
इनके हार्दिक अनुराग को देखकर भगवान ने एक दिन स्वप्न में इनसे कहा,
‘मैं किशोरी कुण्ड में रह रहा हू.
मैं बहुत दिन से भूखा हॅू.
मुझे यहॉ से निकालकर मेरी सेवा पूजा करो.
निद्रा भंग होने पर ये तिलमिला उठे.प्रात:काल प्रभु के द्वारा प्राप्त निर्देशानुसार इन्होंने किशोरी कुण्ड से श्रीविग्रह को बाहर निकाला और विधिपूर्वक अभिषेक करके श्रीराधाविनोद नाम से ठाकुरजी को स्थापित किया.
नित्यप्रति नवीन लाड़ से ठाकुरजी की सेवा करते.इनकी यह दृढ प्रतिज्ञा थी कि
‘मैं शिष्यों का संग्रह नहीं करूंगा और रहने के लिए कुटी नहीं बनाऊॅगा.
फलस्वरूप लता कुन्जों तथा वृक्षों के नीचे ही इनका निवास होता और जहॉ ये रहते वहीं इनके ठाकुरजी भी रहते.
वर्षा आदि में ठाकुरजी को वृक्षों के कोटर में छिपा देते और कभी गोद में रखकर स्वयं को उनका आच्छादन बना लेते.
इस प्रकार बड़े ही प्रेम पूर्वक श्रीठाकुरजी की आत्मवत सेवा करते थे.
आज तो लोग ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.”श्रीनरोत्तमदास जी”की अपूर्व गुरुसेवा से सन्तुष्ट होकर इन्होंने अपने प्रण को भूलकर उन्हें विधिवत् मंत्र दीक्षा दी थी.
श्री नरोत्तमदासजी की लोकोत्तर सेवा-भाव को देखकर श्रीजीवगोस्वामीजी ने उन्हें
‘ठाकुर’की पदवी दी थी.
इस प्रकार श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी का सम्पूर्ण जीवन सुदृढ़ साधनामय रहा.
आत्म प्रचार से ये इतने दूर रहते थे कि श्रीचैतन्यचरितामृत के रचियता श्रीकृष्णदास कविराजजी जब ग्रन्थ रचना के पूर्व इनकी आज्ञा और आशिर्वाद लेने गये तो इन्होंने अत्यन्त आग्रह पूर्वक कहा कि ग्रन्थ में कहीं भी मेरी चर्चा न की जाय.जब राधा विनोद जी स्वयं रसोई बनाने लगेएकबार श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी श्रीराधाकृष्ण के प्रेमरंग में रंगे हुए श्रीराधाबिनोदजी का श्रंगार करके रूपमाधुरी का दर्शन करने में ऐसे खो गये कि शरीर की सुधबुध ही नहीं रही.
उधर ठाकुरजी के भोग बनाने में देर हो रही थी.
तब ठाकुरजी ही स्वयं इनका रूप धारणकर पाकशाला में जाकर रसोर्इ बनाने लगे.
इतने में एक सेवक दर्शन करने आया.
प्रथम वह रसोर्इ का समय जानकर पाकशाला में गया तो वहॉ इनको रसोर्इ बनाते देखा,
फिर ठाकुरजी का दर्शन करने गया तो वहॉ इनको ठाकुरजी के दर्शन में बेसुध देखा.
सेवक को परम आश्चर्य हुआ.
वह अपने मन का विस्मय दूर करने के लिए कर्इ बार मन्दिर में और रसोर्इ में गया परन्तु हर बार उसे दोनो जगह श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी ही दिखार्इ दिये.तब उसने मन्दिर में विराजमान श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी केचरणों में पड़कर यह विस्मयकारी प्रसंग निवेदन किया.
सुनकर ये भी पाकशाला में गये तो सचमुच रसोर्इ बनकर पूर्ण तैयार थी परन्तु अब बनाने वाला वहॉ नहीं था.
श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी समझ गये कि वह कोर्इ और नहीं साक्षात् श्रीराधाविनोद ठाकुर जी ही थे.प्रभुकी कृपा विचारकर श्रीलोकनाथ गोस्वामीजी गदगद हो गये.
इनकी यह भावदशा देखकर सेवक भी समझ गया कि यह सब प्रभुकी ही लीला थी.
जब थोड़ी देर बाद दानेां ठाकुरजी के पास आये तो वे मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे.
ऐसे ही आपके अनेकों चरित्र हैं.नित्य लीला में प्रवेश
-विक्रम सम्वत
1645 में श्रावण कृष्णाष्टमी को आपने नित्य निकुंज में प्रवेश किया.
नित्य लीला में ये मंजुलालिमंजरी हैं.
जिस प्रकारसखियों में श्रीललिताजी के बाद श्रीविशाखाजी का नाम आता है उसी प्रकार मंजरियों में रूपमंजरी के बाद श्रीमंजुलालिमंजरी को स्मरण किया जाता है.
तप्तस्वर्ण के समान इनकी शरीर कान्ति,
किंशुक पुष्पके समान लाल वस्त्र तथा श्रीप्रिया प्रीतम के वस्त्रों को सभालकर रखना एवं पहनाना आदि इनकी प्रधान सेवा है.
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