ब्रज शब्द से अभिप्राय





ब्रज शब्द से अभिप्राय


ब्रज शब्द से अभिप्राय सामान्यत: मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का क्षेत्र समझा जाता है। वैदिक साहित्य में ब्रज शब्द का प्रयोग प्राय: पशुओं के समूह, उनके चारागाह (चरने के स्थान) या उनके बाडे़ के अर्थ में है। रामायण, महाभारत और समकालीन संस्कृत साहित्य में सामान्यत: यही अर्थ ‘ब्रज’ का संदर्भ है। ‘स्थान’ के अर्थ में ब्रज शब्द का उपयोग पुराणों में गाहे-बगाहे आया है, विद्वान मानते हैं कि यह गोकुल के लिये प्रयुक्त है। ‘ब्रज’ शब्द का चलन भक्ति आंदोलन के दौरान पूरे चरम पर पहुँच गया। चौदहवीं शताब्दी की कृष्ण भक्ति की व्यापक लहर ने ब्रज शब्द की पवित्रता को जन-जन में पूर्ण रूप से प्रचारित कर दिया । सूर, मीरां (मीरा), तुलसीदास, रसखान के भजन तो जैसे आज भी ब्रज के वातावरण में गूंजते रहते हैं।
कृष्ण भक्ति में ऐसा क्या है जिसने मीरां (मीरा) से राज-पाट छुड़वा दिया और सूर की रचनाओं की गहराई को जानकर विश्व भर में इस विषय पर ही शोध होता रहा कि सूर वास्तव में दृष्टिहीन थे भी या नहीं। संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्रज में सोलह हज़ार राग रागनिंयों का निर्माण हुआ था। जिन्हें कृष्ण की रानियाँ भी कहा जाता है । ब्रज में ही स्वामी हरिदास का जीवन, ‘एक ही वस्त्र और एक मिट्टी का करवा’ नियम पालन में बीता और इनका गायन सुनने के लिए राजा महाराजा भी कुटिया के द्वार पर आसन जमाए घन्टों बैठे रहते थे। बैजूबावरा, तानसेन, नायक बख़्शू (ध्रुपद-धमार) जैसे अमर संगीतकारों ने संगीत की सेवा ब्रज में रहकर ही की थी। अष्टछाप कवियों के अलावा बिहारी, अमीर ख़ुसरो, भूषण, घनानन्द आदि ब्रज भाषा के कवि, साहित्य में अमर हैं। ब्रज भाषा के साहित्यिक प्रयोग के उदाहरण महाराष्ट्र में तेरहवीं शती में मिलते हैं। बाद में उन्नीसवीं शती तक गुजरात, असम, मणिपुर, केरल तक भी साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ। ब्रज भाषा के प्रयोग के बिना शास्त्रीय गायन की कल्पना करना भी असंभव है। आज भी फ़िल्मों के गीतों में मधुरता लाने के लिए ब्रज भाषा का ही प्रयोग होता है।

पुत्रदा एकादशी व्रत कथा

श्रावण पुत्रदा एकादशी
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा


श्री युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए। इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है।

द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम की एक नगरी थी, जिसमें महीजित नाम का राजा राज्य करता था, लेकिन पुत्रहीन होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था। उसका मानना था कि जिसके संतान न हो, उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दु:खदायक होते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। 

वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मेरे खजाने में अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन नहीं है। न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है। किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ‍ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा। मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा। कभी किसी से घृणा नहीं की। सबको समान माना है। सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पु‍त्र नहीं है। सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है? 

राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिए मं‍त्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए। राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को देखते-फिरते रहे। 

एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा, जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा, जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था।

सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया। उन लोगों को देखकर मुनि ने पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं? नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा। मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो। 

लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले- हे महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं। अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए। महिष्मति पुरी का धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है। फिर भी वह पुत्रहीन होने के कारण दु:खी है।

उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं। अत: उसके दु:ख से हम भी दु:खी हैं। आपके दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएँ।

यह वार्ता सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। निर्धन होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था। 

एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय वह जबकि वह दो दिन से भूखा-प्यासा था, एक जलाशय पर जल पीने गया। उसी स्थान पर एक तत्काल की ब्याही हुई प्यासी गौ जल पी रही थी। 

राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा। एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है। ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है। अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए।

लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप अवश्य नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी। 

लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत और जागरण किया।

इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को दिया गया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ।

इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा। अत: संतान सुख की इच्छा हासिल करने वाले इस व्रत को अवश्य करें। इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है।

Radhey Krishna


भगवान के भोग का फल

भगवान के भोग का फल

      एक सेठजी बड़े कंजूस थे। एक दिन दुकान पर् बेटे को बैठा दिया और बोले कि बिना पैसा लिए किसी को कुछ मत देना, मैं अभी आया।अकस्मात एक संत आये जो अलग अलग जगह से एक समय की भोजन सामग्री लेते थे, लड़के से कहा बेटा जरा नमक देदो। लड़के ने सन्त को डिब्बा खोल कर एक चम्मच नमक दिया। सेठजी आये तो देखा कि एक डिब्बा खुला पड़ा था, सेठजी ने कहा कि क्या बेचा, बेटा बोला एक सन्त जो तालाब पर् रहते हैं उनको एक चम्मच नमक दिया था। सेठ का माथा ठनका अरे मूर्ख इसमें तो जहरीला पदार्थ है। 
      अब सेठजी भाग कर संतजी के पास गए, सन्तजी भगवान के भोग लगाकर थाली लिए भोजन करने बैठे ही थे सेठजी दूर से ही बोले महाराजजी रुकिए आप जो नमक लाये थे वो जहरीला पदार्थ था।आप भोजन नहीं करें।
       संतजी बोले भाई हम तो प्रसाद लेंगे ही क्योंकि भोग लगा दिया है और भोग लगा भोजन छोड़ नहीं सकते हाँ अगर भोग नहीं लगता तो भोजन नही करते और शुरू कर दिया भोजन। सेठजी के होश उड़ गए, बैठ गए वहीं पर्। रात पड़ गई सेठजी वहीं सो गए कि कहीं संतजी की तबियत बिगड़ गई तो कम से कम बैद्यजी को दिखा देंगे तो बदनामी से बचेंगे। सोचते सोचते नींद आ गई। सुबल जल्दी ही सन्त उठ गए और नदी में स्नान करके स्वस्थ दशा में आ रहे हैं। सेठजी ने कहा महाराज तबियत तो ठीक है। सन्त बोले भी भगवान की कृपा है, कह कर मन्दिर खोला तो देखते हैं कि भगवान का श्री विग्रह के दो भाग हो गए शरीर कला पड़ गया। अब तो सेठजी सारा मामला समझ गए कि अटल विश्वास से भगवान ने भोजन का जहर भोग के रूप में स्वयं ने ग्रहण कर लिया और भक्त को प्रसाद का ग्रहण कराया।
     सेठजी ने आज घर आकर बेटे को घर दुकान सम्भला दी और स्वयं भक्ति करने सन्त शरण चले गए।
   शिक्षा :-  भगवान को निवेदन करके भोग लगा करके ही भोजन करें, भोजन अमृत बन जाता है। 

  आइये आज से ही नियम लें कि भोजन बिना भोग लगाएं नहीं करेंगे।

बहुत ही सुंदर प्रसंग





🌷बहुत ही सुंदर प्रसंग है बिहारी जी का अवश्य पढे श्री राधे 🌷
        💕 ।। विश्वास ।। 💕


भगत  कबीर  जी  की  बेटी की  शादी  का  समय नजदीक    रहा  था। सभी  नगर  वासीयों  में कानाफूसी  चल  रही  थी। कि  देखो  कबीर  की  बेटी  की  शादी  है,और  इनको कोई  फिक्र  ही  नहीं।पता  नहीं  यह  बरातियों  की आओभगत  कर  भी  पाएँगे या  नहीं...?

उधर  किसी  ने  लड़के  वालों के  कानों  तक  यह  बात पहुँचा  दी  कि  कबीर  ने  तो  अभी  तक  शादी  की कोई  तैयारी  की  है ,और  ही  दान  दहेज  का  कोई इंतजाम  किया  है। जैसे  जैसे  वक्त  बितता गया, लोगों  की  सुगबुगाहट  तेज हो  गई।

इतने  में  शादी  का  दिन  भी   गया। पूरा  गाँव  विवाह स्थल  की  ओर  चल  पड़ाकुछ  तो  ऐसै  लोग  भी  थे  जो  सिर्फ  यह  देखने  के  लिए  गये  कि  कबीर  जी  की पगड़ी  उछलते  देख  सकें । लेकिन  कबीर  जी  सुबह पहले  पहर  ही  घर  से  दूर एक  टीले  के  पीछे  जा  के भजन  बंदगी  में  बैठ  गये। मालिक  से  अरदास  करने लगे ,
हे  ठाकुर जी  आपने  मुझे  जिस  मकसद  के  लिए  भेजा  है,मैं  तो  उसी में  लीन  हूँ, बाकि  आप  ही संभाले

खैर  शाम  होते  होते  भजन बंदगी  में  बैठे  कबीर  जी  के कानों  में  आवाजें  आनी  शुरू  हुईंधन्य   है  कबीर धन्य  हैं  कबीर,,

कबीर  जी  ने  आँखें  खोलकर  देखा  कि  कुछ  गाँव  वाले  वहाँ  से  गुजर  रहे हैं  कबीर  जी  ने  अपनी दोशाला  से  मुँह  ढंका  और उनसे  पूछा ,भाई  क्या  हुआ ?

किस  कबीर  की  बात  कर रहे  हो ?
क्या  वह  जुलाहा? ?

लोगों  ने  कहा  --हाँ भाई ,ऐसी  शादी  तो  आज तक  नहीं  देखी।।इतना  दान दहेज  बहुत  सारे  पकवान ...
 
वाह  भई  वाह 
मजेदार  लजीज  व्यंजन, बोलते  हुए  वे लोग  आगे बढ गये। कबीर  जी  ने  सोचा  कि  कहीं  यह  मेरा  मजाक  तो नहीं  बना  रहे,जल्दी  जल्दी घर  की  तरफ  भागे । वहाँ  का  नजारा  देख  हैरान रह  गये ,पूरा  घर  चमचमा रहा  था  चारों  तरफ  लोग वाह  वाह  कर  रहे  थेइतने  में  कबीर  जी  की  बीवी  उनके  पास  आकर बोलीं,सुबह  से  शादी  की तैयारी  में  भाग  दौड़  कर  रहे  हो,अब  तो  कपड़े  बदल  लो, बेटी  की  डोली  विदा  करने का  वक्त  हो  गया  है....!!

कबीर  जी  की  आँखों  में पानी    गया ,और  धीरे  से बोले--  भागयवान  मैं  सुबह पहर  से  ही  घर  से  निकल गया  था।

उनकी  बीवी  सारा  माजरा समझ  चुकीं  थीं  कि ठाकुर जी  खुद  ही  कबीर  जी का  रूप  बनाकर  हमारे  घर भाग  दौड  कर  रहे  थे।।
अब  दोनों  के  ही  आंखों  में शुक्र  शुक्र  शुक्र  के  आंसू थे।।।।।।।

🌷राधेराधे🌷

जहां विश्वास है वहां सबूत की ज़रूरत नहीं होती...

आखिर गीता पर भी कहाँ श्रीकृष्ण के दस्तखत हैं!

||जय श्री राधे || 

आज की “ब्रज रस धारा


🌹🌾आज कीब्रज रस धारा🌾🌹
दिनांक 10/08/2018


श्री बांकेबिहारी महाराज को वृंदावन में प्रकट करनेवाले स्वामी हरिदासजी महाराज है इनका जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्री राधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था.परिचय -स्वामी हरिदास जी के पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात अलीगढ जनपद की कोल तहसील में ब्रज आकर एक गांव में बस गए.

श्री हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था. वे बचपन से ही एकान्त-प्रिय थे. उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बड़ा आनंद मिलता था.श्री हरिदासजी का कण्ठ बड़ा मधुर था और उनमें संगीत कीअपूर्व प्रतिभा थी. धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई. उनका गांव उनके नाम हरिदासपुर से विख्यात हो गया. हरिदास जी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की.युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदास जी कीआसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं. उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित नकरने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदास के चरणों में लीन हो गया.विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था मेंश्री हरिदास वृन्दावन पहुंचे. वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया.

हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे. स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की.स्वामी जी की संगीत साधनाहरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं. श्यामा-कुंजबिहारी केनित्य विहार का मुख्य आधारसंगीत है. उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं. ललितासंगीतकी अधिष्ठात्री मानीगई हैं.’ललितावतारस्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे.

श्री हरिदासजी का कण्ठ बड़ा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी. धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई.उनका संगीत किसी राजा-महाराजा को नहींउनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, बैजुवाबरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी जी के शिष्य थे.विक्रम सम्वत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास निधिवन में हुआ.

प्रसंग . -अकबर के दरबार के नौ रत्नों में तानसेन एक थे.एक बार जब उन्होंने तानसेन से कहा कि हरिदास जी का संगीतसुनना चाहता हूँ तो तानसेन ने कहा कि मेरे गुरूजी केवल बांकेबिहारी जी के लिए ही गाते है. तब जब वे नहीं माने तोतानसेन उन्हें लेकर वृंदावन गए और अकबर को उनकी कुटिया के बाहर खड़ा करके स्वयं अंदर चले गए और जान बूझकर गलत राग में गाने लगे,तब स्वामी हरिदास जी ने उन्हें रोका और स्वयं गाने लगे.जब बाहर खड़े अकबर ने स्वामी जी का संगीत सुना तो बड़ा भाव बिभोर हो गया और तानसेन से पूंछाकि क्या कारण है कि तुम भी इतना अच्छा नहीं गा पाते जितना तुम्हारे स्वामी जी गाते है. तुम्हारा संगीत भी अब तो मुझे फीका लगता है इस पर तानसेन ने कहामै तो केवल दिल्ली के बादशाह के लिए गाता हूँ और मेरे स्वामी दुनिया के बादशाह के लिए गाते है बस यही फर्क है.

हरि भजि हरि भजि छांड़िन मान नर तन कौजिन बंछैरे जिन बंछैरे तिल तिल धनकौंअनमागैं आगैं आवैगौ ज्यौं पल लागैं पलकौंकहि हरिदास मीच ज्यौं आवै त्यौं धन आपुन कौ

प्रसंग . -दयालदास नामक एक खत्री एक दिन आया, जिसे अनायास पारस का पत्थर प्राप्त हुआ, जो सम्पर्क में आई प्रत्येक वस्तु को सोने में रूपान्तरित कर देता था. उसने यह पत्थर एक महान निधि के रूप में स्वामी जी को भेंट किया.स्वामी जी ने वह यमुना में फेंक दिया.दाता के प्रवोधन को देखकर स्वामी जी उसे यमुना किनारे ले गये और उसे मुट्ठी भर रेती जल में से निकालने का आदेश दिया. जब उसने वैसा ही किया तो प्रत्येक कण में पारस पत्थर की प्रतीत हुई, जो फेंक दिया गया था. और जब परीक्षण किया तो वह उन्हीं गुणों से सम्पन्न पाया गया. तब खत्री की समझ में आया कि सन्तों को भौतिक सम्पदा की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन वे स्वयमेव परिपूर्ण होते हैं. तदनन्तर वह स्वामी हरिदास के शिष्यों में सम्मिलितहो गया.

प्रसंग . -जब यह बात फैली कि साधु को दार्शनिक का पत्थरभेंट किया गया है तो एक दिन जब स्वामी जी स्नान कर रहे थे, कुछ चोरों ने शालिग्राम को चुराने का अवसर पा लिया. उन्होंने सोचा कदाचित यही वह (पत्थर) हो. अपने उद्देश्य हेतु व्यर्थ जानकर चोरों ने उसे एक झाड़ी में फेंक दिया. जैसे ही सन्त उसकी खोज में उस स्थान से होकर निकले शालिग्राम की वाणी सुनाई दी कि मैं यहाँ हूँ. उसी समय से प्रत्येक प्रात:काल किसी चामत्कारिक माध्यम से स्वामी जी को नित्य एक स्वर्ण-मुद्रा प्राप्त होने लगी जिससे वे मन्दिर का भोग लगाते और जो बचता था, उससे वे अन्न क्रयकरते, जिसे वे यमुना में मछलियों को और तट पर मोर और वानरों को खिलाते थे.



जय जय श्री राधे