🌹🌾आज की
“ब्रज रस धारा”🌾🌹
दिनांक 10/08/2018
श्री
बांकेबिहारी महाराज को वृंदावन
में प्रकट करनेवाले
स्वामी हरिदासजी महाराज है
इनका जन्म विक्रम
सम्वत् 1535 में भाद्रपद
मास के शुक्लपक्ष
की अष्टमी (श्री
राधाष्टमी) के ब्रह्म
मुहूर्त में हुआ
था.परिचय -स्वामी
हरिदास जी के पिता
श्री आशुधीर जी
अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की
प्रेरणा से पत्नी
गंगादेवी के साथ
अनेक तीर्थो की
यात्रा करने के
पश्चात अलीगढ जनपद की
कोल तहसील में
ब्रज आकर एक
गांव में बस
गए.
श्री
हरिदास जी का
व्यक्तित्व बड़ा ही
विलक्षण था. वे
बचपन से ही
एकान्त-प्रिय थे. उन्हें
अनासक्त भाव से
भगवद्-भजन में
लीन रहने से
बड़ा आनंद मिलता
था.श्री हरिदासजी
का कण्ठ बड़ा
मधुर था और
उनमें संगीत कीअपूर्व
प्रतिभा थी. धीरे-धीरे उनकी
प्रसिद्धि दूर-दूर
तक फैल गई.
उनका गांव उनके
नाम हरिदासपुर से
विख्यात हो गया.
हरिदास जी को
उनके पिता ने
यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त
वैष्णवी दीक्षा प्रदान की.युवा होने
पर माता-पिता
ने उनका विवाह
हरिमति नामक परम
सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी
कन्या से कर
दिया, किंतु स्वामी
हरिदास जी कीआसक्ति
तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त
अन्य किसी में
थी ही नहीं.
उन्हें गृहस्थ जीवन से
विमुख देखकर उनकी
पतिव्रता पत्नी ने उनकी
साधना में विघ्न
उपस्थित नकरने के उद्देश्य
से योगाग्नि के
माध्यम से अपना
शरीर त्याग दिया
और उनका तेज
स्वामी हरिदास के चरणों
में लीन हो
गया.विक्रम सम्वत्
1560 में पच्चीस वर्ष की
अवस्था मेंश्री हरिदास वृन्दावन
पहुंचे. वहां उन्होंने
निधिवन को अपनी
तपोस्थली बनाया.
हरिदास
जी निधिवन में
सदा श्यामा-कुंजबिहारी
के ध्यान तथा
उनके भजन में
तल्लीन रहते थे.
स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल
छवि श्री बांकेबिहारीजी
महाराज के रूप
में प्रतिष्ठित की.स्वामी जी की
संगीत साधनाहरिदासजी के
ये ठाकुर आज
असंख्य भक्तों के इष्टदेव
हैं. श्यामा-कुंजबिहारी
केनित्य विहार का मुख्य
आधारसंगीत है. उनके
रास-विलास से
अनेक राग-रागनियां
उत्पन्न होती हैं.
ललिता’संगीत’की
अधिष्ठात्री मानीगई हैं.’ललितावतार’स्वामी हरिदास संगीत
के परम आचार्य
थे.
श्री
हरिदासजी का कण्ठ
बड़ा मधुर था
और उनमें संगीत
की अपूर्व प्रतिभा
थी. धीरे-धीरे
उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक
फैल गई.उनका
संगीत किसी राजा-महाराजा को नहींउनके
अपने आराध्य की
उपासना को समर्पित
था, बैजुवाबरा और
तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी
जी के शिष्य
थे.विक्रम सम्वत
1630 में स्वामी हरिदास का
निकुंजवास निधिवन में हुआ.
प्रसंग
१. -अकबर के
दरबार के नौ
रत्नों में तानसेन
एक थे.एक
बार जब उन्होंने
तानसेन से कहा
कि हरिदास जी
का संगीतसुनना चाहता
हूँ तो तानसेन
ने कहा कि
मेरे गुरूजी केवल
बांकेबिहारी जी के
लिए ही गाते
है. तब जब
वे नहीं माने
तोतानसेन उन्हें लेकर वृंदावन
आ गए और
अकबर को उनकी
कुटिया के बाहर
खड़ा करके स्वयं
अंदर चले गए
और जान बूझकर
गलत राग में
गाने लगे,तब
स्वामी हरिदास जी ने
उन्हें रोका और
स्वयं गाने लगे.जब बाहर
खड़े अकबर ने
स्वामी जी का
संगीत सुना तो
बड़ा भाव बिभोर
हो गया और
तानसेन से पूंछा
– कि क्या कारण
है कि तुम
भी इतना अच्छा
नहीं गा पाते
जितना तुम्हारे स्वामी
जी गाते है.
तुम्हारा संगीत भी अब
तो मुझे फीका
लगता है इस
पर तानसेन ने
कहा – मै तो
केवल दिल्ली के
बादशाह के लिए
गाता हूँ और
मेरे स्वामी दुनिया
के बादशाह के
लिए गाते है
बस यही फर्क
है.
“हरि
भजि हरि भजि
छांड़िन मान नर
तन कौजिन बंछैरे
जिन बंछैरे तिल
तिल धनकौंअनमागैं आगैं
आवैगौ ज्यौं पल
लागैं पलकौंकहि हरिदास
मीच ज्यौं आवै
त्यौं धन आपुन
कौ”
प्रसंग
२ . -दयालदास नामक
एक खत्री एक
दिन आया, जिसे
अनायास पारस का
पत्थर प्राप्त हुआ,
जो सम्पर्क में
आई प्रत्येक वस्तु
को सोने में
रूपान्तरित कर देता
था. उसने यह
पत्थर एक महान
निधि के रूप
में स्वामी जी
को भेंट किया.स्वामी जी ने
वह यमुना में
फेंक दिया.दाता
के प्रवोधन को
देखकर स्वामी जी
उसे यमुना किनारे
ले गये और
उसे मुट्ठी भर
रेती जल में
से निकालने का
आदेश दिया. जब
उसने वैसा ही
किया तो प्रत्येक
कण में पारस
पत्थर की प्रतीत
हुई, जो फेंक
दिया गया था.
और जब परीक्षण
किया तो वह
उन्हीं गुणों से सम्पन्न
पाया गया. तब
खत्री की समझ
में आया कि
सन्तों को भौतिक
सम्पदा की कोई
आवश्यकता नहीं है
लेकिन वे स्वयमेव
परिपूर्ण होते हैं.
तदनन्तर वह स्वामी
हरिदास के शिष्यों
में सम्मिलितहो गया.
प्रसंग
३ . -जब यह
बात फैली कि
साधु को दार्शनिक
का पत्थरभेंट किया
गया है तो
एक दिन जब
स्वामी जी स्नान
कर रहे थे,
कुछ चोरों ने
शालिग्राम को चुराने
का अवसर पा
लिया. उन्होंने सोचा
कदाचित यही वह
(पत्थर) हो. अपने
उद्देश्य हेतु व्यर्थ
जानकर चोरों ने
उसे एक झाड़ी
में फेंक दिया.
जैसे ही सन्त
उसकी खोज में
उस स्थान से
होकर निकले शालिग्राम
की वाणी सुनाई
दी कि मैं
यहाँ हूँ. उसी
समय से प्रत्येक
प्रात:काल किसी
चामत्कारिक माध्यम से स्वामी
जी को नित्य
एक स्वर्ण-मुद्रा
प्राप्त होने लगी
जिससे वे मन्दिर
का भोग लगाते
और जो बचता
था, उससे वे
अन्न क्रयकरते, जिसे
वे यमुना में
मछलियों को और
तट पर मोर
और वानरों को
खिलाते थे.
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