एक गोपी ब्याह कर बरसाने आयी

!! जय श्री राधे !!

एक गोपी ब्याह कर बरसाने आयी। अपने घर-परिवार के संस्कार और परंपरा बताते हुए उसकी सास यह कहना भूली कि वह अकेली कहीं जाये। क्योकि यहाँ नन्दगाँव के नन्दजी का बेटा घूमता रहता है और छोटी सी उम्र में ही उसे "इन्द्रजाल" का ऐसा ज्ञान है कि जो उसे देख ले, सुध-बुध खो बैठे सो तू विशेष सावधानी रखना। गोपी बोली - " मैया ! मैं उसे पहिचानूंगी कैसे" ? सास ने कहा कि सिर पर मोर मुकुट पहिनता है, घुंघराली अलकावलियाँ हैं, कानों में कुन्डल हैं, रक्त- चंदन का तिलक और मुख पर चंदन का ही श्रंगार उसकी मैया करती है।बड़े-बड़े सम्मोहित करने वाले नेत्रों में काजल की शोभ अनुपम है, माथे के बायीं ओर बुरी नजर से बचने के लिये डिठौना लगा होता है, काँधे तक फ़ैली उसकी केशराशि पवन का साथ पाकर जब फ़हराती है तो वह अपने सुन्दर कोमल हाथों से उसे ठीक करते हैं। गले में एक स्वर्ण-हार और एक मोतियों का हार है परन्तु उसे गहवर-वन के पुष्प सर्वाधिक प्रिय हैं सो उसके मित्रगण या यहाँ की गोपियाँ नित्य ही उसके लिये एक पुष्प-हार का सृजन करती है और वह उसे धारण कराती है. उस पुष्प-हार में बड़े ही सुगंधित दिव्य फ़ूलों का समावेश है जो उस छलिये के आने की पूर्व-सूचना देने में सक्षम है। अनावृत वक्ष पर वह पटुका डाले रहता है। भुज- दंडों पर भी चंदन से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ शोभायमान रहती हैं। हाथों में मोटे-मोटेचाँदी के कड़ूले और कमर पर पीतांबर के साथ स्वर्ण करधनी शोभा पाती है। हाथ में बंसी लिये बड़ी ही अलमस्त चाल से चलता है, कभी किसी गोपी को छेड़े तो कभी लता-पताओं से बातें भी करता है। पक्षी भी उसे मुग्ध से देखते हैं और मोर तो टकटकी लगाकर इस अनुपम "सांवरे सौंन्दर्य" का रसपान करते हैं। इससे अधिक मेरी भी स्मृति नहीं क्योकि जो उसे देख ले, उसे फ़िर उसकी वेश-भूषा की भी स्मृति रह पाये, यह संभव ही नहीं। देखने वाले को तो केवल उसका मुख और उसके नेत्र ही स्मृति में रहते हैं और उन नेत्रों में ही मानो समस्त अस्तित्व डूबा जाता है। तुझे स्वस्थ, सानन्द रहना है तो सावधान रहियो। तू सावधान रहेगी तब भी आशंका तो बनी ही रहेगी क्योंकि बरसाने में कुछ हो और वह जाने, यह भी तो संभव नहीं। वह स्वयं कहाँ मानने वाला है; जाने उसे "बरसाने" वालों से ऐसी छेड़-छाड़ में क्या आनन्द आता है। सास चेताती तो संभवत: नयी ब्याहता गोपी के मन में इतनी तीव्रता से उस "सांवरे" को देखने की इच्छा भी जगती। सास नहीं जानती कि उसने अपनी पुत्र-वधू को "सांवरे" से बचाने के स्थान पर"सांवरे" के साथ ही फ़ँसा दिया है। अब तो एक ही उत्सुकता, लगन कि कब उसे देखूँ। कोई भी पास- पड़ोस का कार्य हो तो वधू कहे कि आप बैठें, मैं करती हूँ। यही आशा कि कब "घर" से निकलूँ और कब"वह" मिलें। कब "साध" पूरी होवे। लक्ष्य के अतिरिक्त जब अन्य कुछ भी स्मृति में रह जाये तो दैव और प्रकृति सभी आपके साथ हो जाते हैं। सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल होने लगतीं हैं; अनायास ही "अघटन" घटने लगता है। तो भला कैसे घटता ? एक दिन "सांकरी खोर" से गुजर रही थी गोपी सांकरी खोर, पर्वत-श्रंखला के मध्य ऐसा स्थान है, जहाँ से एक ही व्यक्ति एक बार में गुजर सकता है। सर पर दही की मटकी, मुख पर घूँघट का आवरण और झीने आवरण के भीतर से चमकते दो चंचल नेत्र चंचल नेत्र ? अतिशय सौंन्दर्य को देखने की अभिलाषा में नेत्र "चंचल" हो गये हैं, उन्हें तो अब वही देखना है जिसके बारे में सुना है कि उसे "नहीं" देखना। नेत्र अब सब समय उसी को खोज रहे हैं, कई बार तो इनकी चंचलता पर "लाज" जाती है। गोपी सांकरी खोर के मध्य ही पहुँची थी कि सम्मोहित करने वाला वेणु-नाद उसके कानों में पड़ने लगा और कानों में ही नहीं वरन कर्ण-पूटों के माध्यम से ह्रदय में प्रवेश करने लगा। वह रुकी और चलायमान नेत्रों ने अपना कार्य आरंभ किया कि कहाँ खोजें और क्षणार्ध में ही "सांकरी खोर" के दूसरे छोर पर, जहाँ से गोपी को जाना था, उसकी छवि प्रकट होने लगी। सामने से पड़ते सूर्य के प्रकाश के कारण वह स्पष्ट तो नहीं देख पा रही परन्तु अपनी सास की चेतावनी मस्तिष्क में कौंध गयी। ह्रदय में संग्राम छिड़ गया। आत्मा-ह्रदय-नेत्र कह रहे हैं कि देखना है और बुद्धि कह रही है कि नहीं, सास ने मना किया है। यहाँ तो संग्राम छिड़ा है, उधर वह "जादूगर" क्रमश: पास आता जा रहा है। हाय रे ! कहाँ भागूँ ? वहीं से जाना है और वहीं से "वह" रहा है। "वह" जब भी पकड़ता है तो "सांकरी खोर" में ही पकड़ता है,  जब आप "अकेले" हों, उसे तब ही "पकड़ने" में आनन्द आता है। क्यों ? क्योंकि यह संबध स्थापित ही तब होगा जब "कोई दूसरा" हो। उस नादान को नहीं मालूम कि "जहाँ जाना" है, वह "वहीं" तो है; वही तो लक्ष्य है, तुम जानो या जानो, मानो या मानो। हाय ! कैसा सौंन्दर्य ! कैसे नेत्र ! कैसा दिव्य मुखमंडल ! वह "सांवरा" चुंबक की तरह अपनी ओर बलात ही खींच रहा है, चित्त अब वश में नहीं, सारी इन्द्रियों ने मानो विद्रोह कर दिया है। सब इस देह को छोड़कर उसमें समा जाना चाहती हैं। हे प्रभु ! सास उचित ही कहतीं थीं। सत्य कहूँ तो कह ही सकीं; इनके "आकर्षण" की क्षमता का वर्णन कहाँ संभव है। हे जगदीश ! अब तुम ही मुझे बचाओ ! आज अच्छी फ़ँसी ! कन्हैया अब बहुत पास गये। जब कोई उपाय रहा तो गोपी ने मुँह घुमाकर पर्वत-श्रंखला की ओर कर लिया। जब वह स्वयं ही सब कुछ देने को उतारु हों तो कोई बाधा भला रह सकती है। गोपी छुपने की, देखने की, बचने की निरर्थक चेष्टा कर रही है और वह मुस्करा रहे हैं। अब वे एकदम पास आकर खड़े हैं। गोपी घूँघट में से देख रही है कि वह इधर-उधर घूमकर उसका मुखड़ा देखना चाहते हैं और बात करना चाहते हैं। देह जड़ हो गयी है; सामने जो आवरण में से दिख रहा है, वह लौकिक नहीं है। ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो रहा हैं प्रेम का स्त्रोत जो जाने कहाँ दबा पड़ा था, आज फ़ूट पड़ा है। गोपी की आत्मा उस रस में स्नान कर रही है, पवित्र हो रही है, परम चेतन से जो मिलना है। सौन्दर्य दैहिक होकर अलौकिक हो गया है। आत्मा में परमात्मा से मिलन की अभीप्सा जाग उठी है। "चौं री सखी ! तू तो बरसाने में कछु नयी सी लग रही है। तोकूँ पहलै कबहुँ नाँय देखो !" यह बोलते समय नन्दनन्दन ने गोपी के कर का स्पर्श कर दिया। अचकचा गयी गोपी और उसने सिर पर रखी "मटकी" झट से हाथों से फ़ेंक दी , "मटकी" फ़ूट गयी [ देह संबध नष्ट हो गया], दही बिखर गया जिसे बड़े परिश्रम से "जमाया" था, अब वह किसी कार्य का नहीं रह गया था। दोनों हाथों से उसने अपने मुख को ढक लिया। वह कनखियों से देख रही है कि नन्दनन्दन मुस्करा रहे हैं। इतनी क्षमता भी नहीं बची कि भाग पाये, उन्होंने रास्ता ही तो रोक लिया है, अब अन्य कोई मार्ग बचा ही नहीं है कि उनसे बिना मिले, बिना दृष्टि मिलाये, बिना अनुमति माँगे कहीं जाया जा सके। देर हो रही है और यह मानते नहीं, कुछ देर मौन खड़ी रहती हूँ, जब बोलूँगी तो अपने-आप चले जावेंगे। कुछ देर मौन पसरा रहा। प्रतीत होता है कि वह किशोर जा चुका है, अच्छा, अब नेत्र खोलूँ। अचानक ही खिलखिलाकर हँसने का शब्द हुआ और गोपी ने चौंककर, मुड़कर, नेत्र खोल सामने देखा। अब जो देखा तो नेत्रों का होना सफ़ल हो गया ! नेत्र उस रस को पी रहे हैं और आत्मा तृप्त हो रही है ! देह तो जड़ हो ही चुकी है। बूँद, सागर को पीना चाहती है, सागर बूँद को अपना रहा है ! रास ! नृत्य ! गोपी बेसुध हो रही है; नहीं जानती, वह कहाँ है ? है भी कि नहीं ! है कौनसुध आयी तो देखा कि घर में शय्या पर है और चारों ओर से उसके परिवारी जन और गोपियाँ घेरे हुए हैं। उसके सिर पर पानी के छींटे डाल रहे हैं। कोई बोली कि - "अम्मा ! तुमने नयी-नवेली बहू अकेली चौं भेजी, मोय तो लगे कि जाये भूत लग गयो है।" इतने में ही उसने सुना कि सास कह रही है कि - " मोय पतो है, जाये भूत-वूत कछु नाँय लगे, जाकूँ तो नन्द कौ पूत लगौ है।" उसने फ़िर आँखें बंद कर ली जिसने उसे देख लिया, वह फ़िर अब क्या देखे और क्यों ?

राधे राधे

भगवान नाम पे पूर्ण श्रद्धा


भगवान नाम पे पूर्ण श्रद्धा


वृंदावन की एक गोपी रोज दूध दही बेचने मथुरा जाती थी, एक दिन ब्रज में एक संत आये, गोपी भी कथा सुनने गई, संत कथा में कह रहे थे, भगवान के नाम की बड़ी महिमरा है, नाम से बड़े बड़े संकट भी टल जाते है। नाम तो भव सागर से तारने वाला है, यदि भव सागर से पार होना है तो भगवान का नाम कभी मत छोड़ना।

 कथा समाप्त हुई गोपी अगले दिन फिर दूध दही बेचने चली, बीच में यमुना जी थी।

गोपी को संत की बात याद आई, संत ने कहा था भगवान का नाम तो भवसागर से पार लगाने वाला है, जिस भगवान का नाम भवसागर से पार लगा सकता है तो क्या उन्ही भगवान का नाम मुझे इस साधारण सी नदी से पार नहीं लगा सकता? ऐसा सोचकर गोपी ने मन में भगवान के नाम का आश्रय लिया भोली भाली गोपी यमुना जी की ओर आगे बढ़ गई।

अब जैसे ही यमुना जी में पैर रखा तो लगा मानो जमीन पर चल रही है और ऐसे ही सारी नदी पार कर गई, पार पहुँचकर बड़ी प्रसन्न हुई, और मन में सोचने लगी कि संत ने तो ये तो बड़ा अच्छा तरीका बताया पार जाने का, रोज-रोज नाविक को भी पैसे नहीं देने पड़ेगे। एक दिन गोपी ने सोचा कि संत ने मेरा इतना भला किया मुझे उन्हें खाने पर बुलाना चाहिये, अगले दिन गोपी जब दही बेचने गई, तब संत से घर में भोजन करने को कहा संत तैयार हो गए।

अब बीच में फिर यमुना नदी आई। संत नाविक को बुलने लगा तो गोपी बोली बाबा नाविक को क्यों बुला रहे है. हम ऐसे ही यमुना जी में चलेगे।

 संत बोले – गोपी ! कैसी बात करती हो, यमुना जी को ऐसे ही कैसे पार करेगे? गोपी बोली – बाबा ! आप ने ही तो रास्ता बताया था, आपने कथा में कहा था कि भगवान के नाम का आश्रय लेकर भवसागर से पार हो सकते है तो मैंने सोचा जब भव सागर से पार हो सकते है तो यमुना जी से पार क्यों नहीं हो सकते? और मै ऐसा ही करने लगी, इसलिए मुझे अब नाव की जरुरत नहीं पड़ती।

संत को विश्वास नहीं हुआ बोले – गोपी तू ही पहले चल ! मै तुम्हारे पीछे पीछे आता हूँ। गोपी ने भगवान के नाम का आश्रय लिया और जिस प्रकार रोज जाती थी वैसे ही यमुना जी को पार कर गई। अब जैसे ही संत ने यमुना जी में पैर रखा तो झपाक से पानी में गिर गए, संत को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब गोपी ने जब देखा तो कि संत तो पानी में गिर गए है तब गोपी वापस आई है और संत का हाथ पकड़कर जब चली तो संत भी गोपी की भांति ही ऐसे चले जैसे जमीन पर चल रहे हो। संत तो गोपी के चरणों में गिर पड़े, और बोले – कि गोपी तू धन्य है।

वास्तव में तो सही अर्थो में नाम का आश्रय तो तुमने लिया है और मैं जिसने नाम की महिमा बताई तो सही पर स्वयं नाम का आश्रय नहीं लिया।

सच में,  हम भगवान नाम का जप एंव आश्रय तो लेते है पर भगवान नाम में पूर्ण विश्वाव एंव श्रद्धा नहीं होने से हम इसका पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं कर पाते शास्त्र बताते है कि भगवान श्री कृष्ण का एक नाम इतने पापो को मिटा सकता है जितना कि एक पापी व्यक्ति कभी कर भी नही सकता।

अतएव भगवान नाम पे पूर्ण श्रद्धा एंव विश्वास रखकर ह्रदय के अंतकरण से भाव विह्वल होकर जैसे एक छोटा बालक अपनी माँ के लिए बिलखता है उसी भाव से सदैव नाम प्रभु का सुमिरन एंव जप करे।

कलियुग केवल नाम अधारा !
सुमिर सुमिर नर उताराहि ही पारा!!

राधे कृष्णा राधे कृष्णा