दिनांक 06/09/2018
श्री सनातन गोस्वामी का जन्म सं. 1523 के लगभग हुआ था सनातन गोस्वामी जी को संस्कृत के साथ फारसी अरबी की भी अच्छी शिक्षा पाई थी.सन् 1483 ई. में पिता मह की मृत्यु पर अठारह वर्ष की अवस्था में यह उन्हीं के पद पर नियत किए गए और बड़ी योग्यता से कार्य सँभाल लिया.
हुसेन शाह के समय में यह प्रधान मंत्री हो गए तथा इन्हें दरबारे खास उपाधि मिली.गोस्वामी जी तीन भाई थे, सबसे बड़े”सनातन जी”ही थे, फिर”रूप गोस्वामी”और सबसे छोटे’अनूप गोस्वामी जी”थे. तीनो भाई राज कार्य में लगे रहते थे. थे तो ब्राह्मण कुलके परन्तु हुसेन शाह के यहाँ काम करते करते उसके जैसा ही रहन सहन हो गया था.श्री चैतन्य महाप्रभु का जब प्रकाश हुआ तब यह भी उनके दर्शन के लिए उतावले हुए, पर राजकार्य से छुट्टी नहीं मिली.
इसलिए उन्हें पत्र लिखकर रामकेलि ग्राम में आने का आग्रह किया.श्री चैतन्य जब वृंदावन जाते समय रामकेलि ग्राम में आए तब इन तीनों भाइयों ने उनके दर्शन किएऔर सभी ने सांसारिक जंजाल से मुक्तिपाने का दृढ़ संकल्प किया.सभी राजपद पर थे.पर सनातन इनमें सबसे बड़े और मंत्रीपद पर थे
अत: पहले श्री रूप तथा अनुपम सारे कुटुंब को स्वजन्मस्थान फतेहाबाद में सुरक्षित रख आए और रामकेलि ग्राम में सनतान जी के लिए कुसमय में काम आने को कुछ धन एक विश्वसनीय पुरुष के पास रखकर वृंदावन की ओर चले गए.जब सनातन जी ने राजकार्य से हटने का प्रयत्न किया तब नवाब ने इन्हें कारागार में बंद करा दिया.अंत में घूस देकर यह बंदीगृह से भागे और काशी पहुँच गए.स. 1572 में यहीं श्रीगौरांग से भेंट हुई और दो मास तक वैष्णव भक्ति शास्त्र पर उपदेश देकर इन्हें वृंदावन भेज दिया कि वहाँ के लुप्त तीर्थों का उद्धार, भक्तिशास्त्र की रचना तथा प्रेमभक्ति एवं संकीर्तन का प्रचार करें.
यहाँ से वृंदावन चले गए पर कुछ दिनों बाद श्रीगौरांग के दर्शन की प्रबल इच्छा से जगन्नाथपुरी की यात्रा की.वहाँ कभी जगन्नाथ भगवान के दर्शन करने नहीं जाते थे,उनकाऐसा मानना था कि यवनों के संसर्ग से हम दूषित हो गए है,जगन्नाथ जी के मंदिर के पास भी कही कोई भक्त हम से स्पर्श न कर जाए,इसलिए मंदिर दूर से ही मंदिर कि धवजा के दर्शन कर लिया करते थे,कुछ दिन रहकर यह पुन: वृंदावन लौट आए.
“श्री सनातन गोस्वामी जी”जब वृंदावन आये और द्वादश टीला जो कलिदेह के निकट है वही पर एक कुटिया में निवास करते थे उस समयवृंदावन घोर जंगल के रूप में परिणित हो गया यहाँ किसी गृहस्थ का वास नहीं था.अतः सनातन जी मथुरासे भिक्षा माँग कर लाते थे श्री सनातन जी प्रातः काल वृंदावन से सोलह मील चलकर चौदह मील गोवर्धन की परिक्रमाकरते थे वहाँ से सोलह मील चलकर मथुरा में मधुकरी करते औरपुन:वृंदावन में अपनी भजन कुटी पर लौट आते.सनातन जी का मदनमोहन को चौबाईन के घर से लाना
प्रसंग १. -एक दिन मथुरा में एक चौबे के घर में श्री सनातन जी ने श्यामकांति वाले मदन नामक बालक को देखा, जो चौबे के घर में स्थित मंदिर से निकलकर चौबे के बालक के साथ गुल्ली डंडा खेल रहे थे. उन श्याम कांति वाले मदन बालक ने चौबाईन के बालक को पराजित कर दिया, मदन ने पराजित चौबे बालक के कंधे पर बैठकर घोड़े क का आनंद लिया.किन्तु दूसरी बार पराजित होने पर जब मदन के कंधे पर, चौबे बालक को चढ़ने की बारी आई तो मदन भागकर मंदिर में प्रवेश कर गया.
ऐसा देखकर चौबे का बालक क्रोध से गली देता हुआ उसके पीछे दौड़ा, वह मंदिर में प्रवेश करना चाहता था किन्तु पुजारी जी ने उसे डाट-डपटकर भगा दिया, अतः विग्रह बने मदन को दूर से ही तर्जनी अँगुली दिखाते हुए चौबे बालक ने कहा – अच्छा कल तुझे देख लूँगा.श्री सनातन जी इस द्रश्य को देखकर आश्चर्य चकित रह गए दूसरे दिन वे कुछ पहले ही दर्शनों की पिपासा लेकर पहुँच गए कलेवे का समय था अतः चौबाईन दोनों बालको के कलेबे के लिए खिचड़ी पका रही थी, अभी उसने स्नान आदि नहीं किया था दोनों बालक कलेवे की प्रतीक्षा कर रहे थे. मैया दातुन करती जा रही थी और उसके दूसरे सिरे से खिचड़ी को भी चलाती जा रही थी. खिचड़ी पक जाने पर कटोरी में गर्म-गर्म खिचड़ी बालको के सामने रखकर फूँक कर उसे ठंडा भी करने लगी. और दोनों बालको ने बड़े प्रेम से खिचड़ी का रसास्वादन करने लगे.सनातनजी से ये चौबाईन का अनाचार सहन नहीं हुआ उन्होंने कहा – माई! इन बालको को बिना स्नान किये दातुन से खिचड़ीचलाकर अपवित्र कलेवा देना उचित नहीं है,
चौबा ईन अपनी भूल समझ गई. बोली – बाबा कल से शुद्ध रूप से बनाकर ही दूँगी.सनातन जी तो रोज ही मधुकरी के लिए आते थे तीसरे दिन फिर पहुच गए तो देखा की माई के स्नान पूजन में विलम्ब के कारण दोनों बालक भूख लगने के कारण कलेबा के लिए मचल रहे है. माँ बर्तन धोकर खिचड़ी पका रही है. दोनों उसके वस्त्र पकड़कर मचल रहे थे.तब सनातन जी ने फिर कहा – माई! आपको स्नान करने की कोई आवश्यकता नहीं है आप पूर्ववत ही बनाये .मैंने आपके चरणों का अपराध किया है, उस बालक के दर्शन हेतु सनातन जी नियम से चौबे के घर आने लगे,और घंटो खड़े उसे देखते और रोते रहते.एक दिन रात में स्वप्न में श्री मदनमोहन जी ने श्री सनातन जी से कहा – कि तुम मुझे मथुरा से यहाँ ले आओ, और उधर चौबाईन को भी स्वप्न में कहा – कि मुझे उन बाबा को दे देना,अगले दिन चौबाईन ने मदनमोहन जी को श्री सनातन जी कोसौप दिया. बोली ये तो बहुत छलिया है जिस यशोदा ने इतना लाड लड़ाया उसे ही छोडकर मथुरा चला गया. इसका कोई सगा नहीं है, इसे मेरी चाह नहीं है तो मै भी क्यों इसके लिए मरू,जाये मेरी बला से, इस तरह प्रेम में रोष करने लगी. बाहर से तो गुस्सा दिखा रही थी और अन्दर से प्रेम के कारण आँसू निकल रहे थे,श्री सनातन जी भिक्षा के द्वारा प्राप्त आटे से अलौनी बाटी बनाकर अपने मदन मोहन का भोग लगाकर खुद पाते थे एक दिन मदन मोहन जी ने कहा बोले – बाबा ये अलौनी बाटी मेरे गले के नीचे नहीं उतरती थोडा सा नमक क्यों नहीं डालते सनातन जी बोले नमक कहा से लाऊ ?बोले मधुकरी मागकर लाते हो वही से, अब सनातन जी नमक लगाकर बाटी बनाने लगे.अब कुछ दिनों बाद मदनमोहन जी फिर बोले –बाबा ये बिना घी कि बाटी हमसे नहीं खायी जाती अब तो सनातन जी बोले – देखो मै ठहरा वैरागी, अगर इतना ही स्वादिष्ट भोजन करना चाहते थे तो किसी सेठ के पास क्यों नहीं गए यहाँ तो ऐसे ही मिलेगा, कभी कहते हो नमक नही, कभी कहते हो घी नहीं, कल ५६ भोग मांगोगे, कहा से लाऊंगा ? अपनी व्यवस्था स्वयं कर लो.
प्रसंग २-एक दिन पंजाब में मुल्तान का रामदास खत्री – जो कपूरी नाम से अधिक जाना जाता था, आगरा जाता हुआ व्यापार के माल से भरी नाव लेकर जमुना में आया किन्तु कालीदह घाट के पास रेतीले तट पर नाव अटक गयी. तीन दिनों तक निकालने के असफल प्रयासों के बाद वह स्थानीय देवता को खोजने और सहायता माँगने लगा. वह किनारे पर आकर पहाड़ीपर चढ़ा. वहाँ उसे सनातन मिले. और सारा वृतांत कहा.सनातन जी बोले -मै तो एक संन्यासी हूँ क्या कर सकता हूँ अन्दर मदन मोहन जी है उनसे प्रार्थना करो व्यापारी से मदनमोहन से प्रार्थना करने लगा,और तत्काल नाव तैरने लग गई. जब वह आगरे से माल बेचकर लौटा तो उसने सारा पैसा सनातन को अर्पण कर दिया और उससे वहाँ मंदिर बनाने की विनती की. मंदिर बन गया और लाल पत्थर का घाट भी बना .भगवान के चरण चिन्ह अंकित गोवर्धन शिलासनातन गोस्वामी का नियम था गिरि गोवर्द्धन की नित्य परिक्रमा करना. अब उनकी अवस्था 90 वर्ष की हो गयी थी. नियम पालन मुश्किल हो गया था. फिर भी वे किसी प्रकार निबाहे जा रहे थे. तब श्री मदन मोहन जी को दया आई और छोटे से बालक के रूप में प्रकट होकर कहने लगे.-सनातन, तुम्हारा कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता. तुम गिरिराजपरिक्रमा का अपना नियम नहीं छोड़ना चाहते तो इस गिरिराजशिला की परिक्रमा कर लिया करो. इस पर मेरा चरण-चिन्ह अंकित है. इसकी परिक्रमा करने से तुम्हारी गिरिराज परिक्रमा हो जाया करेगी.”इतना कह मदनगोपाल अन्तर्धान हो गये. सनातन गोस्वामी मदनगोपाल-चरणान्कित उस शिला को भक्तिपूर्वक सिर पर रखकरअपनी कुटिया में गये. उसका अभिषेक किया और नित्य उसकी परिक्रमा करने लगे. आज भी मदगोपाल के चरणचिन्हयुक्त वह शिला वृन्दावन में श्रीराधादामोदर के मन्दिर में विद्यमान हैं,ऐसी मान्यता है कि राधा दामोदर मंदिर की चार परिक्रमा लगाने पर गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा का फल मिल जाता है.आज भी कार्तिक सेवा में श्रद्धालु बड़े भाव से मंदिर की परिक्रमा करते है.
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